सोमवार, 7 मार्च 2011

यायावर





चौराहे पर वह मुझे मिला , चोगा पहने, छड़ी का सहारा लिए | उसके चेहरे पर दर्द साफ़ नुमांया हो रहा था | हमने एक दूसरे का अभिवादन किया, और तब मैंने उससे कहा, "कृपया मेरे घर आकर कुछ दिन मेरे मेहमान बनें |"


उसने स्वीकार किया |


मेरी पत्नी और बच्चे, घर की देहरी पर ही उससे मिले | उन्हें देखकर वह मुस्कुराया, मेरे घरवालों को भी उसका आना भला लगा |


उसके बाद हम लकड़ी के एक तख्ते पर बैठ गए | उसकी शांति और रहस्यमयता की वजह से हमें उसके साथ बैठकर काफी सुकून महसूस हुआ |


रात्रिभोज के बाद हम अलाव के पास बैठ गए, और मैंने उससे उसकी पिछली यात्राओं के बारे में पूछा |


उस रात और उसके अगले दिन उसने हमें कई किस्से सुनाये, लेकिन जो कहानियाँ मैं अभी लिख रहा हूँ वे उसके कडुवे अनुभव के किस्से हैं , हालांकि वो खुद बहुत दयालु था | ये किस्से उसके रास्तों की गर्द और धैर्य के किस्से हैं |


और तीन दिन बाद वो चला गया तो उसका जाना हमें किसी मेहमान का जाना नहीं लगा, बल्कि किसी अपने का ही थोड़ी देर के लिए बगीचे में सैर के लिए जाना जैसा लगा, जो अभी तक वापस नहीं आया है |


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